Wednesday, 4 June 2025

कविता - मनीषा जॊशी मणि

 


कविता
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मानव -मानव का रक्त पियॆ।
विचलित है मन अब कैसे जियॆ।
अकुलाहट मैं कैसे छुपाऊ।
कॊमल ह्रदय कॊ क्या समझाऊं।
दर्द भरी कन्या की आँखें।
कॊई ना जिनकॆ भीतर झाँकॆ।
भूखा है यहाँ अन्न का दाता ।
कर्ज़ बढ़े तॊ फ़ाँँसी खाता।
ज़ुल्म की पुड़िया सबने फाकी।
संवेदना नहीं अब बाकी।
वाणी हुई है यू जहरीली ।
जैसे वस्तु हॊ कॊई विषैली ।
धर्म-धर्म सारॆ जपतॆ हैं।
धर्म की अग्नि मॆ तपतॆ हैं।
नाग फनी  सा विश्व हुआ है।
चहु दिशा यॆ कैसा धुआँ है।
षड्यंत्रकारी घात लगायॆ।
नयॆ-नयॆ नित जाल बिछायॆ।
तन मन से हम हुए है घायल.
रिश्तों में अब दिखता है छल.
आतंकित है दुनिया सारी
आतंकवाद है बड़ी बिमारी
हाहाकार हुआ है ऐसा ।
कॆवल प्रभु पे रहा भरोसा।
हॆ प्रभु तुम रक्षा कॊ आओ।
बीच भंवर सॆ हमॆं बचाऒ।
जैसे लंका तुमने जराई।
नाश करॊ अब सारी बुराई ।
सब मंगल करॊ मंगलदाता।
तुम्हें पुकारे भारत माता।
तुम्हें पुकारे भारत माता।
कापीराइट @मनीषा जॊशी मणि