Thursday, 9 February 2023

लालच - डॉ० अशोक









लालच।

[कविता ]
किसी भौतिक चीज को,
पाने की बढ़ी हुई इच्छा,
लालच का संकेत है।
अनुचित लाभ पाने का यह,
एक उत्साहित सा नदी पर,
असमंजस में बड़ा रेत है।
लालच अमंगल स्वरूप रूप में,
समस्त जनमानस के बीच,
समकालीन समस्या उत्पन्न करता है।
दुखों को मजबूती प्रदान करने में,
मजबूती से फलीभूत कराने में,
भरपूर ढंग से मदद करता है।
लोभ, लोलुपता और तृष्णा,
लालच का भिन्न- भिन्न रंग है।
ज़िन्दगी में असफलता का,
सदैव दिखता अप्रिय बदरंग है।
यह नुकसान का साम्राज्य बनाता है,
मुश्किलो का हरक्षण सौन्दर्य खिलाता है।
लालच असंतोष का उन्नत स्वरूप है,
गन्दी  दुर्भावना का रहता पूर्ण रूप है।
यह नाकारात्मक विचार का एक आह्वान है,
गुलशन में खिली हुई सुगंधित पुष्प का,
हरपल शून्य सा दिखता निम्न भान है।
लालच कमजोर व निर्बल तन्त्र है,
ज़िन्दगी का हर छंद इसका  परतंत्र है।
लालच मानवीय कुत्सित प्रयास है,
प्रकृति को आज़ खूब हो रही,
 इसका बखूबी से हों रहा अहसास है।
लालच परेशानियों का जन्म दाता है,
सभ्य समाज में नहीं दिखता,
इसका कोई भाग्यविधाता है।
नज़र साफ़ दिखाई नहीं देता है,
 लालच जब बिल्कुल पास है,
दुखदाई बनकर हरपल सताता है।
जब हृदय में समां एक आस है,
ज़िन्दगी के सफ़र में हलचल पैदा,
 करने में सदैव आगे आ जाता है। 
लालच जिंदगी की एक बुरी बला है,
सफलता की उत्तम डगर पर,
 यह एक छोटी व निम्न कला है।
आओ हम-सब मिलकर यहां,
एक उन्नत  व सम्बल प्रयास करें,
लालच के रंग को जीवन से,
 खत्म करने के लिए सत्संग करें।

डॉ० अशोक, पटना, बिहार।

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