अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्य प्रतियोगिता मंच - हमारी वाणी
होली का उन्माद
उम्र बढ़ी तो बदला बदला
है होली का स्वाद।
ख़त्म हो गया रंगबिरंगी
होली का उन्माद।
जिनके लिए बनाया था घर,
वे हैं कोसों दूर।
होली हो या दीवाली,
घर आने से मजबूर।
नाती पोतों की फोटो से,
करना है संवाद।
चाय बनाकर लाई पत्नी,
गुमसुम बैठी पास।
घर में पसरा है सन्नाटा,
मन है बहुत उदास।
आ न सके हैं बेटे-बहुएँ,
बेटी अरु दामाद।
अब तो संग-साथ वाले हैं,
ज्यादातर बीमार।
कमर दर्द या साँस फूलती,
चलने में लाचार।
अपने घर के दरवाजे पर,
हम भी हैं आबाद।
ज्ञानेन्द्र मोहन 'ज्ञान'
शाहजहाँपुर (उ. प्र.)
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