ध्यान
पिता का चश्मा ,कलम/कुबड़ी
अब रखे उनकी किताबों के संग
लगता घर म्यूजियम,लायब्रेरी हो
जैसे यादों की।
माँ मेहमानों को
ध्यान देकर बताती
और उन्हें पढ़ने को देती
मेरे पिता की लिखी किताबें।
मै भी लिखना चाहता
बनना चाहता
पिता की तरह
मगर ,जिंदगी के
भागदौड़ के सफर मे
फुर्सत कहा
मेरे ध्यान न देने से
लगने लगी
पिता की किताबों पर दीमक।
संजय वर्मा "दृष्टि"
मनावर जिला धार मप्र
No comments:
Post a Comment