मतदाता की महिमा - नेहा
राजनीति का मेला सजता,
चुनावों में रंग चढ़ता।
मंचों पर मीठे भाषण गूँजे,
सच कहीं कोने में सिसकता।
वादों के मोती परोसे जाते,
स्वप्नों की माला गूँथी जाती।
पर मतदाता के भोले मन पर
झूठ की चादर ओढ़ी जाती।
एक कहे— “वो भ्रष्ट, वो धोखेबाज़!”
दूजा चिल्लाए— “ये सबसे गड़बड़-साज़!”
दोनों करते आरोपों की बरसात,
जैसे देश नहीं, कोई अखाड़ा आज।
मतदान दिवस जब पास आता,
हाथ जोड़कर हर कोई मुस्कुराता।
पर भीतर बैठी धोखाधड़ी
राज़ों की पोथी फिर फैलाती।
मतदाता सोचता—
“किस पर विश्वास करें?”
कौन सच्चा, कौन जाल बिछाए
कैसे यह पहचान करें?
पर लोकतंत्र की यही है रीति,
उम्मीद की डोरी रहती जीवित।
शायद कोई ईमान का दीप जले,
शायद झूठ का राज़ ढहे, कल खिल उठे प्रीत।
तो हे मतदाता!
तुम ही हो असली राजा,
सोच समझ कर ही तुम मतदान करना,
वरना फिर वही पुराना तमाशा।
मतदाता की महिमा”*
राजनीति का मेला सजता,
चुनावों में रंग चढ़ता।
मंचों पर मीठे भाषण गूँजे,
सच कहीं कोने में सिसकता।
वादों के मोती परोसे जाते,
स्वप्नों की माला गूँथी जाती।
पर मतदाता के भोले मन पर
झूठ की चादर ओढ़ी जाती।
एक कहे— “वो भ्रष्ट, वो धोखेबाज़!”
दूजा चिल्लाए— “ये सबसे गड़बड़-साज़!”
दोनों करते आरोपों की बरसात,
जैसे देश नहीं, कोई अखाड़ा आज।
मतदान दिवस जब पास आता,
हाथ जोड़कर हर कोई मुस्कुराता।
पर भीतर बैठी धोखाधड़ी
राज़ों की पोथी फिर फैलाती।
मतदाता सोचता—
“किस पर विश्वास करें?”
कौन सच्चा, कौन जाल बिछाए
कैसे यह पहचान करें?
पर लोकतंत्र की यही है रीति,
उम्मीद की डोरी रहती जीवित।
शायद कोई ईमान का दीप जले,
शायद झूठ का राज़ ढहे, कल खिल उठे प्रीत।
तो हे मतदाता!
तुम ही हो असली राजा,
सोच समझ कर ही तुम मतदान करना,
वरना फिर वही पुराना तमाशा।
नेहा
दिल्ली
दिल्ली

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