प्रो. स्मिता शंकर - छठ महापर्व – आस्था की गंगा
आया है छठ, भोर की बेला,
माँ के स्वर में गूंजा अलबेला।
सूप थामे, जल में खड़ी,
श्रद्धा की मूर्ति — नारी बड़ी।
कंचन सी धूप, अरघ्य की धार,
सूर्य देवता को सादर पुकार।
नदिया के तट पर गूंजे गान,
भक्ति से धुलते सब अभिमान।
पक्की पोखर, घाट सजाए,
घर-घर दीपक, मंगल गाए।
सूप में ठेकुआ, कच्चे धागे,
भक्ति में डूबे, प्रेम के आगे।
नारी शक्ति का यह पर्व महान,
संयम, तप, और विश्वास की शान।
तीन दिन उपवास रखती है माँ,
बिना शिकायत, बिना थकान।
संध्या में डूबते सूरज को प्रणाम,
भोर में उगते सूरज का सम्मान।
ये है जीवन का सच्चा संदेश,
जहाँ अंत भी आरंभ का वेश।
बच्चों की हँसी, ढोल की थाप,
हर ओर फैला उजियाला आप।
धूप की रेखा, जल की लहर,
बन जाती है पूजा का शहर।
न कोई स्वार्थ, न कोई दिखावा,
सिर्फ़ सच्चे मन का लगावा।
छठ सिखाता —
“प्रेम, संयम और सेवा से बढ़कर
कोई पूजा नहीं इस धरा पर।”
हर माँ की आँखों में चमक है प्यारी,
हर बेटी में मईया की तैयारी।
सूर्य की किरणें जब माथे पे पड़ती,
माँ की भक्ति सोने सी झिलमिल करती।
भोर की लालिमा जब मुस्काए,
नदिया का जल भी झूम जाए।
हर हृदय में उठे यही स्वर,
जय छठी मईया, जय भास्कर!
प्रो. स्मिता शंकर , बैंगलोर

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