आखिर हिन्दी को किससे खतरा?
. . हिन्दी मेरी पहचान हैं
प्रदीप कुमार नायक
स्वतंत्र लेखक एवं पत्रकार
भारत ने विगत दिनों 14 सितंबर को हिन्दी दिवस बड़े ही धूमधाम से मनाया l यह अवसर जश्न मनाने के साथ आत्म चिंतन करने का भी था l जिस देश में गाड़ी पर हिन्दी में प्लेट नम्बर लिखने से चालान कट जाता हैं, जहाँ नब्बे प्रतिशत लोग अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं, मोबाइल में जहाँ हिन्दी के लिए दो दबाना पड़ता हैं, एवं जिस देश की अदालत में न्याय के लिए बहस हिन्दी में नहीं सुनी जाती हैं, डॉक्टरों का पुर्जा जहाँ हिन्दी में नहीं लिखा जाता हैं l ऐसे देशवासियो ने 14 सितंबर को हिन्दी दिवस धूमधाम से मनाया, और बधाईयां दी l
14 सितम्बर यानि हिन्दी दिवस हम और आप सभी जानते हैं l क्या आम और क्या खास सब हिन्दी की जय करते हैl लेकिन व्यवहार में क्या होता हैं,लोग फिर अंग्रेजी को तरजीह देंगे l आखिर स्टेट्स सिम्बल का सवाल जो हैं l गौरतलब तो हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आज तक हिन्दी पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोते आई हैं l हिन्दी केवल एक भाषा भर नहीं,बल्कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, कला, इतिहास, धर्म और परम्परा की पहचान भी हैं l
आज हिन्दी के बिना न तो भारतीय साहित्य का कोई अर्थ हैं और न ही राष्ट्रीय संस्कृति की कोई पहचान l हिन्दी सदा लोकभाषा रही हैं l लेकिन राजप्रिय नहीं हो सकी l हिन्दी पर फ़ारसी इस्लामी शासको ने थोपी l फ़ारसी को राजाश्रय तो मिला लेकिन हिन्दी जीवंत रही l अंग्रेजो ने अंग्रेजी को तवज्जो दी फिर भी हिन्दी जन -गण की भाषा बनी रही l स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी निज भाषा उन्नति को अपनाने के बजाये भारत का प्रभु वर्ग अंग्रेजी का गुलाम बने रहे l अंग्रेजी विदेशी भाषा हैं l विदेशी भाषा का ज्ञान गलत नहीं हैं l यूं भी भाषा ज्ञान वान्छनीय नहीं होता l फिर भी परम्परा -परिवार, समाज, संस्कृति, समायोजन और एक राष्ट्र के सूत्र स्व -भाषा में ही सुदृढ़ होते हैं l यूं भी एक ही शर्त पर दूसरी भाषा का विकास न्यायोचित नहीं हो सकता l
काबिल -ए -गौर तो हैं कि 1916 के अखिल भारतीय भाषा सम्मलेन में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहाँ ठा कि अंग्रेजी बोलने में मुझे पाप लगता हैं l क्योंकि यह राज -दरबारियों की हनक-ठसक की बोली हैं,जबकि हिन्दी मन और सौंदर्य की भाषा हैl यह बनावटीपन से कोसों दूर हैंl हिन्दी हमें नागरिक बनाती हैं, किन्तु अंग्रेजी उपभोक्ता बनाती हैl
14 सितम्बर 1949 को संविधान के अनुच्छेद 343 में देश की राजभाषा हिन्दी एवं लिपि देव नागरी की बात कहीं गई हैं l 15वर्षो तक अंग्रेजी को राजकाज की भाषा बनाई गई l लेकिन आज सात दशक बीतने के बाद भी अंग्रेजी महारानी और हिन्दी नौकरानी बनी हैं l
गौरतलब हैं कि देश में आज भी 95 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो अंग्रेजी बोलने और समझने में पूरी तरह से असमर्थ हैं l इसके बावजूद हमारे देश के अधिकतर कामकाजों दफ़्तरों में अंग्रेजी का ही प्रचलन हैं l उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज और फैसले सारे अंग्रेजी में ही होते हैं l जिसका प्रभाव इन 95 प्रतिशत लोगों पर पड़ता हैं l इन लोगों को पूरी तरह से वकील अथवा अधिकारियों पर निर्भर रहना पड़ता हैं l अत:वादी तथा प्रतिवादी दोनों को आगे की प्रक्रिया समझने में काफ़ी दिक्क़त होती हैं,अथवा समझ ही नहीं आती l
आज भारत ही नहीं बल्कि विदेश भी हिन्दी भाषा को अपना रहे हैं,तो फिर हम देश में रहकर भी अपनी भाषा को बढ़ावा देने के बजाय उसको ख़त्म करने पर क्यों तुले हैं ? सवाल हैं कि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई भारत सरकार की राष्ट्र भाषा में क्यों नहीं होती हैं ? भारत के संविधान में लिखा हैं कि अंग्रेजी सिर्फ राजभाषा को सहयोग करेगी l देश के संवैधानिक पद पर बैठने वालों के लिए भारत सरकार की राजभाषा जानना अनिवार्य क्यों नहीं होना चाहिए ? हमारा देश भी गज़ब हैं l सजा सुनाई जाती हैं,जिरह किए जाते हैं,पर दोषी और दोष लगाने वाले को यह पता ही नहीं चलता कि यह लोग क्या बहस कर रहे हैl कभी कोर्ट में जाकर देखे तो इन सब पर दया आती हैं l कटघरे में खड़े कभी अपने वकील, कभी विपक्षी वकील तो कभी जज को देखते रहते हैं l बाहर आकर पूछते हैं क्या हुआ ? इस अवस्था को हम क्या न्याय मानेंगे ?
आजादी के समय यह निर्णय लिया गया था कि सन,1965 तक अंग्रेजी को काम में लिया जायेगा और हिन्दी को राजभाषा का दर्जा डे दिया जायेगा l परन्तु सन,1963 के राजभाषा अधिनियम के तहत हिन्दी के साथ -साथ अंग्रेजी को भी शामिल कर लिया गया l विश्व में अनेक देश जैसे इंग्लैंड, अमेरिका, जापान, चीन और जर्मन आदि अपनी भाषा पर गर्व महसूस करते हैं तो हम क्यों नहीं ?
यू. एन. ओ. के आधिकारिक भाषा विभाग की आंकड़ों की माने तो आज विश्व स्तर पर जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनकी संख्या या तो हिन्दी के बराबर हैं या उससे कम हैं, सिवाय मंदारिन को छोड़कर l आंकड़ों से स्पष्ट होता हैं कि दुनियां का हर तीसरा व्यक्ति हिन्दी भाषी हैं l दुनियां के 163 विश्व विधालयों में बतौर पाठ्यक्रम हिन्दी में पढ़ाई जाती हैl गौरतलब हैं कि यू. एन. ओ. के महासचिव ने हिन्दी को अंडरस्टैंडिंग एवं हारमोनी की भाषा माना हैं l भूमंडली करण एवं आर्थिक उदारीकरण के दौर में हिन्दी की दुनियां बदली हैं l विश्व व्यापार संगठन ने भी माना हैं कि भारत दुनियां का सबसे बड़ा बाजार हैं l भारतीय बाजार एवं व्यापारिक मंडी को हिन्दी के बिना नहीं जीता जा सकता हैं l क़स्बाई बाजार से लेकर महानगरीय बाजार तक में हिन्दी का बोलवाला हैं l
सरकार को चाहिए कि यूरोपियन यूनियन "यूरो " की तर्ज पर दक्षेस देशों की आधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित करने का प्रयास तेज करेl हिन्दी को पाठ्यक्रम रोजगार परक कार्यक्रम से जोड़ा जाएं l बैंकों, सरकारी कार्यालयों एवं शैक्षणिक संस्थानों में हिन्दी की अनिवार्यता बढ़ाई जाए l सरकार की यह संवैधानिक उत्तर दायित्व भी बनती हैं l जैसा कि नामचीन साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी माना हैं कि निज भाषा उन्नति, अहै सब उन्नति l हम सभी को भी इसे आत्मसात करना चाहिए कि ये जो हिन्दी हैं हमारी जिन्दगानी हैं l
अगर हम हिन्दी के लिए गंभीर होकर हिन्दी भाषा को उसकी देश में सर्वोच्च स्थान दिलाना चाहते हैं तो इसके लिए हमारे राजनैतिक नेतृत्व को राष्ट्रभाषा के रूप में सभी संवैधानिक संस्थानों को प्रथम भाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने पर जोर देना होगा और राष्ट्र के प्रमुख तीन स्तम्भ कार्य पालिका, विधायिका और न्यायपालिका को अंग्रेजी को एलीट क्लास समझने की मानसिकता से बाहर आना होगाl जरुरत हैं इच्छा शक्ति की और जब आज आजादी के सात दशक बाद भी हिन्दी को सम्मान नहीं मिलेगा तो फिर कब मिलेगा ?
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