स्वयं से स्वयं तक का सफ़र - नेहा
क्या मैंने स्वयं को जाना?
क्या मैंने स्वयं को पहचाना?
हाँ… मगर बस इतना ही,
जितना दिखावे की सतह तक था,
अंदर की गहराइयों तक उतरना कहाँ आया मुझे?
कपड़ों के रंग और ब्रांड में
मैंने अपनी पहचान खोजी,
महलों की ऊँची दीवारों में
मैंने अपने सपनों को तोला,
होटलों की चमकती थालियों में
मैंने श्रेष्ठता का स्वाद चखा।
समाज की आँखों में
अपना दर्जा ऊँचा दिखाना ही
जैसे जीवन का सबसे बड़ा मक़सद बन गया—
पर क्या यही है मेरा धर्म?
क्या यही है मेरा कर्म?
नहीं… कभी नहीं!
जीवन ठहरकर पूछता है मुझसे—
क्यों न कुछ पल ऐसे हों
जहाँ मैं अपने भीतर झाँक सकूँ,
जहाँ साँसों की गिनती से परे
मन की गहराइयों को सुन सकूँ।
धर्म वही है जो बाँधे,
नफ़रत की दीवारें नहीं,
कर्म वही है जो जिए,
स्वार्थ की सीमाएँ नहीं।
इंसानियत - यही है मेरा सच्चा धर्म,
सद्भावना - यही है मेरा शाश्वत कर्म।
महलों से ऊँचा है वह हृदय
जो करुणा से भरा हो,
कपड़ों से सुंदर है वह चेहरा
जो सत्य से दमकता हो,
हीरों से बढ़कर है वह थाली
जिसने किसी भूखे का पेट भरा हो।
आज मैं जानती हूँ—
स्वयं को पहचानने का मतलब है
भीतर के अँधेरे को रोशनी में बदलना,
स्वार्थ के आवरण से बाहर निकलकर
मानवता को गले लगाना।
यही है जीवन की सबसे बड़ी जीत—
इंसान होकर इंसान बने रहना।
— नेहा
हिंदी शिक्षिका
नई दिल्ली
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