सत्ता की सरगम,
वादों का संगम है,
सच अब भी तन्हा।
जनता की आँखें,
हर ओर टटोलतीं,
सारा सच पूछे।
नीति के मोती,
काग़ज़ में चमकते हैं,
मन फिर भी प्यासा।
कुर्सी की बंसी,
वादों की धुन बजाए,
सुनता कौन है।
सपनों की सेज पर,
सत्ता सोई रहती,
जनता जागे है।
जब सब मौन हुए,
एक आवाज़ उभरी —
सारा सच बोले।
हवा में गूँजे,
नीति की गुपचुप बात,
सच खुलता वहीं।
काँटों की हँसी में,
फूलों का डर भी है,
राजमहल महके।
शब्दों के जंगल,
वादों के उपवन हैं,
पथ फिर भी सूना।
हर बार चुनाव,
सपनों की नीलामी,
जनता देखे है।
पर एक अख़बार,
दीपक-सा चमकता —
सारा सच साप्ताहिक।
वो हर हफ्ते ही,
सत्ता के आँचल में,
सच की बात रखे।
डॉ० अशोक, पटना, बिहार
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