Sunday, 21 December 2025

वंदेमातरम् - मनीषा आवले चौगांवकर

 वंदेमातरम्  - मनीषा आवले चौगांवकर

 -----भारत की सांस्कृतिक स्मृति है। यह वह स्वर है जिसने स्वतंत्रता संग्राम में जन-मन को जोड़ा और मातृभूमि को भावनात्मक अधिष्ठान दिया।‘वंदे मातरम्’ भारतीय राष्ट्रचेतना का भाव है, जिसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के आरंभिक काल में गहराई तक फैली हैं। इसकी रचना सुप्रसिद्ध साहित्यकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। यह गीत उनके उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में सम्मिलित हुआ।
----संस्कृतनिष्ठ भाषा में रचित यह गीत पहली बार 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया, जहाँ से यह राष्ट्रीय आंदोलन का उद्घोष बन गया!समय के साथ इसके कुछ छंदों को लेकर मतभेद भी उभरे, किंतु इसकी ऐतिहासिक भूमिका निर्विवाद रही। वंदे मातरम् का इतिहास बताता है कि यह गीत भारतभूमि को माता,देवी-रूप में प्रतिष्ठित करता है,जहाँ प्रकृति, संस्कृति और संघर्ष एकाकार हो जाते हैं।और आज भी वह चेतना हमारी सांस्कृतिक स्मृति में जीवित है!---‘वंदे मातरम्’ केवल एक उद्घोष नहीं, बल्कि भारतीय चेतना का स्पंदन एवं राष्ट्रभाव है। यह शब्दयुग्म अपने भीतर धरती की सुगंध, इतिहास की स्मृति और आत्मबल का उजास समेटे हुए है। वंदे मातरम् में नदियों की कलकल, खेतों की हरियाली, और जनमानस की साधना एक साथ गूँजती है। यह राष्ट्र को भौगोलिक सीमाओं से ऊपर उठाकर सांस्कृतिक और नैतिक चेतना का रूप देता है।
 --- वंदे मातरम् का उच्चारण आत्मसम्मान को जाग्रत करता है और कर्तव्यबोध को पुष्ट करता है। आज के समय में भी इसकी प्रासंगिकता अक्षुण्ण है।यह हमें विभेद से ऊपर उठकर राष्ट्र के प्रति संवेदनशील, जिम्मेदार और समर्पित नागरिक बनाता है। वंदे मातरम्—भारत की आत्मा का निनाद।
------किंतु हालिया राजनीतिक चर्चाओं में  फिर प्रश्नों के केंद्र में है ...सम्मान और स्वतंत्रता के बीच संतुलन को लेकर।देशभक्ति का अर्थ किसी पर भावना थोपना नहीं, बल्कि विविधता के साथ पंरपरा, भाषा ,सह-अस्तित्व समाहित है। दरअसल वंदेमातरम् हमारी लोकतांत्रिक समझ है।यह तभी सार्थक है जब वह विभाजन नहीं, संवाद रचे; भय नहीं, भरोसा जगाए।राष्ट्र नागरिक चेतना से बनता है। और चेतना तभी जीवित रहती है जब सम्मान स्वेच्छा से हो,राजनीति से ऊपर, मनुष्यता के साथ।

           मनीषा आवले चौगांवकर,
दिल्ली

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