Wednesday, 19 March 2025

होली के रंग - अनन्तराम चौबे अनन्त


विषय... होली के रंग 

दिनांक... 18/3/2025

नाम.. अनन्तराम चौबे अनन्त जबलपुर म प्र 

कविता...


  होली के रंग


लगतीं हैं तुम बिन

सूनी ये गलियां ।

महकती नहीं हैं

यों बागों से कलियां ।


होली के रंग भी

पढ़े आज फीके ।

सारा सच साथी नहीं  

जो तुम्हारे सरीखे ।


वो गांव के पनघट सारा 

 सच भी सूने पढ़े  हैं ।

न दिखते हैं गोरी 

के सिर पर घड़े हैं ।


छूटा साथ जब से

मुद्दत गुजर गई ।

यादों की परछाई

फीकी सी पढ़ गई ।


होली ही थी जब

मुलाकात हुई थी ।

नजरों से आपस में

जब नजरें मिलीं थी ।


सरमाते सकुचाते

रगों से रंग डाला ।

चेहरा था दोनों का

बहुत ही भोला भाला ।


फिर तो मुलाकातें यों

सारा सच बढती गई थी ।

दिन दूनी और रात

चौगुनी हुई थी ।


समय ने फिर ऐसा

चक्कर चलाया ।

मिलना दोनों का

किसी को न भाया ।


तड़पते तरसते

बिछड़े फिर ऐसे ।

देख भी न पाये

प्यार की नजर से ।


 तड़फे और तरसे सारा 

 सच यादों में हर पल

आंखों की निंदिया हुई

दुश्मन यों पल पल ।


परछाई भी कुछ

कतराने लगी थी ।

अनायास सूरत जब

आइने में जो देखी थी ।


आखिर इस मन को

किसी ने समझाया ।

मुरझाये मन को

यों ढाढस दिलाया  ।


बदली समय ने

करवट यों फिर से ।

जब देखा किसी ने

फिर तिरछी नजर से ।


उस चेहरे में दिखती थी

सूरत वही प्यारी  ।

किस्मत फिर बदली

खिली दुनिया सारी ।


बातो की मधुरता ने

दिल को तड़पाया ।

किस्मत से दिन भी 

वो होली का आया ।


बदल गई किस्मत

फिर प्यारी प्यारी

रंग से भिगो दी

चुनरिया भी प्यारी ।


खिला फिर से चेहरा

जो मुरझा गया था ।

यादों में उनकी

मर सा गया था  ।


होली के रंग से

रंगें दिल ये पूरे

 बिछड़े थे जैसे

मिले दिल ये अधूरे ।


असफल प्रेम में

निराश मत होना ।

जिन्दगी मिली है

खुशियों से जीना ।


 अनन्तराम चौबे अनन्त

  जबलपुर म प्र

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