हादसा - प्रो. स्मिता शंकर
एक पल की चूक थी बस,
ना कोई शोर, ना दस्तक थी,
सपनों से सजा वो आंगन
अब सिर्फ़ ख़ामोश सड़कों पर बिखरता दिखा।
कल तक जो हँसते थे,
आज तस्वीरों में ठहर गए,
ज़िन्दगी की वो छोटी-सी गलती
कितनी बड़ी सज़ा दे गई।
लापरवाही थी, या नियति का खेल?
या हमने ही आँखें मूँद ली थीं?
ढीले पुल, टूटती रेलें, जलते जहाज
क्या हमारी चेतना भी थक चुकी थी?
मोमबत्तियों की कतारें लगती हैं,
अख़बारों में हेडलाइन बनती है,
फिर कुछ दिन बाद
वो हादसा बस एक तारीख़ बनकर रह जाती है।
हम क्यों नहीं सीखते हर चीख से?
क्यों हर बार किसी माँ की गोद सूनी होती है?
क्यों हम ग़लतियों की ही प्रतीक्षा करते हैं,
जिनसे सबक़ सीखा जा सकता है?
अब तो जागो ऐ समाज के शिल्पकारो,
हर ईंट में ईमानदारी भरो,
ताकि फिर कोई हादसा
किसी घर का सूरज न निगल जाए।
प्रो. स्मिता शंकर
कर्नाटका
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