Sunday, 23 March 2025

होली के रंग - अनन्तराम चौबे अनन्त

 


होली के रंग - अनन्तराम चौबे अनन्त

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लगतीं हैं तुम बिन
सूनी ये गलियां ।
महकती नहीं हैं
यों बागों से कलियां ।

होली के रंग भी
पढ़े आज फीके ।
सारा सच साथी नहीं  
जो तुम्हारे सरीखे ।

वो गांव के पनघट सारा 
 सच भी सूने पढ़े  हैं ।
न दिखते हैं गोरी 
के सिर पर घड़े हैं ।

छूटा साथ जब से
मुद्दत गुजर गई ।
यादों की परछाई
फीकी सी पढ़ गई ।

होली ही थी जब
मुलाकात हुई थी ।
नजरों से आपस में
जब नजरें मिलीं थी ।

सरमाते सकुचाते
रगों से रंग डाला ।
चेहरा था दोनों का
बहुत ही भोला भाला ।

फिर तो मुलाकातें यों
सारा सच बढती गई थी ।
दिन दूनी और रात
चौगुनी हुई थी ।

समय ने फिर ऐसा
चक्कर चलाया ।
मिलना दोनों का
किसी को न भाया ।

तड़पते तरसते
बिछड़े फिर ऐसे ।
देख भी न पाये
प्यार की नजर से ।

 तड़फे और तरसे सारा 
 सच यादों में हर पल
आंखों की निंदिया हुई
दुश्मन यों पल पल ।

परछाई भी कुछ
कतराने लगी थी ।
अनायास सूरत जब
आइने में जो देखी थी ।

आखिर इस मन को
किसी ने समझाया ।
मुरझाये मन को
यों ढाढस दिलाया  ।

बदली समय ने
करवट यों फिर से ।
जब देखा किसी ने
फिर तिरछी नजर से ।

उस चेहरे में दिखती थी
सूरत वही प्यारी  ।
किस्मत फिर बदली
खिली दुनिया सारी ।

बातो की मधुरता ने
दिल को तड़पाया ।
किस्मत से दिन भी 
वो होली का आया ।

बदल गई किस्मत
फिर प्यारी प्यारी
रंग से भिगो दी
चुनरिया भी प्यारी ।

खिला फिर से चेहरा
जो मुरझा गया था ।
यादों में उनकी
मर सा गया था  ।

होली के रंग से
रंगें दिल ये पूरे
 बिछड़े थे जैसे
मिले दिल ये अधूरे ।

असफल प्रेम में
निराश मत होना ।
जिन्दगी मिली है
खुशियों से जीना ।

 अनन्तराम चौबे अनन्त
  जबलपुर म प्र

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