Monday, 1 December 2025

परिचय - सपना

 
परिचय - सपना 

मैं कौन हूँ,
यह प्रश्न जीवन की पहली धड़कन से ही,
मेरे कंधों पर अपना हाथ रख देता है।
जैसे कोई अदृश्य गुरु,
बिना बोले कहता हो-
“खुद को पहचानने की यात्रा शुरू हुई।”

मेरा परिचय,
मेरी जन्मतिथि का दिया हुआ कोई अंक नहीं,
न ही वह घर,
जहाँ मैंने पहली बार बोलना सीखा।
परिचय मेरा,
उन अनुभवों की नदी है,
जो भीतर बहती रहती है,
कभी शांत,
कभी उफनती,
पर कभी रुकती नहीं।

मैं मेरे नाम का पहला अक्षर नहीं,
मैं वह तड़प हूँ,
जो हर असफल प्रयास के बाद,
फिर उठ खड़ी होती है।
मैं उन स्वप्नों की प्रतिध्वनि हूँ,
जिन्हें किसी ने रातों के अँधेरे में,
चुपचाप कंधों पर रखा था।

मेरे परिचय का एक हिस्सा,
उन आँसुओं में छिपा है,
जिन्हें मैंने किसी को दिखने नहीं दिया,
और दूसरा हिस्सा,
उस हँसी में जो टूटकर भी,
टूटती नहीं।

मैं अपने पूर्वजों की परंपरा भी हूँ,
और आधुनिकता की धड़कन भी।
मैं यादों के पीले पड़ते काग़ज़,
और भविष्य की चमकती खिड़कियों,
दोनों के बीच कहीं खड़ी,
एक खोजती हुई रेखा हूँ।

मेरी पहचान,
मेरी सफलताओं में नहीं,
उन असंख्य कोशिशों में है,
जिन्हें इतिहास ने दर्ज नहीं किया।
वह हर सुबह,
जो निराशा को धूप की तरह,
धीरे-धीरे पिघलाती रही।

यदि तुम पूछो,
कि मेरा परिचय क्या है?
तो मैं कहूँगी,
मैं अपने रास्तों का जोड़ हूँ,
अधूरी इच्छाओं का भार,
पूरा हुए सपनों की रोशनी,
और उन कदमों की थकान,
जो सच की तलाश में चलते रहे।

मैं किसी एक रूप में बंध नहीं सकती,
मैं बदलती हवा हूँ,
गिरकर उठती हुई ढलान हूँ,
अँधेरे में जलती छोटी-सी लौ हूँ,
और सुबह की पहली किरण का भरोसा भी।

मेरा परिचय?
शायद यही,
कि मैं निरंतर बनने की प्रक्रिया हूँ।
मैं आज जो हूँ,
कल तक वैसी नहीं रहूँगी,
पर मेरी यात्रा की मिट्टी,
मेरे हर रूप को,
अपनी गोद में सुरक्षित रखेगी।

और इस अंतहीन यात्रा के बीच,
मैं जान चुकी हूँ,
परिचय कोई ठहरा हुआ शब्द नहीं,
यह तो जीवन का सतत प्रवाह है,
जो हर अनुभव से,
मुझे नया आकार देता जाता है।


                                                       संक्षिप्त परिचय
नाम - सपना 

धिकार - आभा सिंह

धिकार - आभा सिंह 

राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता मंच  #हमारी_वाणी 
#मेरी कलम मेरी पहचान 
#विषय - अधिकार 

संविधान सबको समान शिक्षा,प्यार,अधिकार देता है,
अमीरी,गरीबी की खाई को भरकर भेदभाव मिटाता है..

एक संवैधानिक लोकतंत्र में, राज्य नागरिकों को अधिकार प्रदान करता है और उनके लिए कर्तव्य निर्धारित करता है, ताकि समाज शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सके । हालाँकि, कभी-कभी राज्य अपने नागरिकों पर ऐसे कर्तव्य थोप देता है जो समाज के हाशिए पर पड़े वर्गों के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। #महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में कहा था कि "वास्तविक अधिकार कर्तव्य के पालन का परिणाम हैं" । अधिकार और कर्तव्य आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं और इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
 प्रत्येक अधिकार के साथ एक कर्तव्य भी जुड़ा हुआ है । राज्य अधिकारों की रक्षा और उन्हें लागू करता है और सभी नागरिकों का कर्तव्य है कि वे राज्य के प्रति वफ़ादार रहें। इस प्रकार एक नागरिक के अधिकार और कर्तव्य दोनों होते हैं। एक व्यक्ति का अधिकार उसका कर्तव्य भी है l मान लीजिये यदि राज्य किसी नागरिक को जीवन का अधिकार देता है, तो वह उस पर यह दायित्व भी डालता है कि वह अपने जीवन को खतरे में न डाले, साथ ही दूसरों के जीवन का सम्मान भी करे।

भारतीय संविधान अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है l अंत में इतना ही कहना है कि-"सबको समान अधिकार मिलना चाहिये और  जबरन श्रम के विरुद्ध, “अस्पृश्यता” के विरुद्ध, सार्वजनिक स्थानों पर भेदभावपूर्ण पहुंच के विरुद्ध तथा अन्य गारंटी के माध्यम से मौलिक अधिकारों द्वारा  भारतीय समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाना चाहिये l"

मौलिक 
आभा सिंह 
वाराणसी

परिचय - डॉ० अशोक

परिचय - डॉ० अशोक

सुबह की किरण
नए परिचयों में
रंग भरती

हवा की लय
अनकहे शब्दों को
घर बुलाती

चलते कदम
रास्ते पहचान कर
साथ निभाते

खुलती धूप
मन की झिर्रियों में
उष्मा भरती

नदी की धुन
नए रिश्तों जैसा
धीरे बहती

आसमान भी
परिचय के पलों को
सहेज लेता

पत्तों की खनक
अनजानी बोलियों में
भाव जगाती

मधुर उजाला
पहली मुलाक़ात की
मुस्कान बुनता

दूर क्षितिज
अजनबियों के बीच
नेक़ी ढूंढे

मन का दीप
हर संबंध के साथ
रोशनी पाए

बिखरी राहें
परिचय के धागों से
जुड़ती जाएँ

जीवन कहता
नए चेहरों में भी
घर मिल जाता

डॉ० अशोक, पटना, बिहार

सुप्रीम कोर्ट - विनीता बरनवाल

हमारीवाणी* प्रतियोगिता हेतु  *सुप्रीम कोर्ट*

सपना था मेरा सुप्रीम कोर्ट में जा कर 
हाजिरी लगाने व दलीलें देने का, 
मुवक्किल की बातों को चाय की चुस्की के संग 
    विस्तार रूप से सुनने का।
तारीख़ पर तारीख़ लेने का, 
काला कोट, सफेद बो पहन कर 
सुप्रिम कोर्ट की वकील साहिबा के रूप मे कोर्ट-कचहरी जाने का। 

मामा जी की वकालत वाली किताबों को 
हम गर्मी की छुट्टियों में दिन-रात पढ़ा करते थे, 
भाई-बहन, सखा-सहेली के मध्य
 हुए आपसी मत-भेद को 
कभी-कभी हम न्याय प्रिय ज़ज 
बन कर सुना करते थे। 

किसी की पैरवी जब अलग अंदाज में 
आइस्क्रीम वाली रिश्वत पर कर दिया करते थे,
शादी के पहले सभी सहपाठी हमें 
वकील साहिबा कहा करते थे। 

सपने हुए चूर कोर्ट-कचहरी के, 
हम हो गए कोसों दूर कोर्ट-कचहरी से।
ख्वाहिशों की किताबें 
बंद आलमारी में सज गए, 
वकील तो हम ना बन सके परंतु 
वकील साहब के आँगन की छोटी बहू बन गए। 

सुप्रिम कोर्ट की दलीलें अब हर रोज़ सुना करते हैं, 
दफ़्न अपने ख़्यालों को अपने बच्चों में बुना करते हैं।

विनीता बरनवाल 
मिर्जापुर उत्तर प्रदेश 

विनीता बरनवाल 
( उत्तर प्रदेश )

अधिकार - अलका जैन आनंदी


अधिकार - अलका जैन आनंदी

औरों के लिए जीना सीखे
अपने लिए जीना क्या जीना
 जीव, पशु, पक्षी भी जीते हैं
जो पर हित सेवा करें मानक सच्चा
 दीन दुखी की मदद असल में मदद है
वृक्ष फलों को देते ही रहते
अंत लकड़ी तक जल जाती है
नदियां बहती ठंडक दे
जीवन दायिनी जल देती हमको 
औरों के लिए जीना सीखे
*अधिकार* तो सबको पता है
 हमें क्या मिलना है
 कभी अपने कर्तव्य भी पूरे किए
 घर के प्रति,समाज के प्रति बच्चों के प्रति
 अपने प्रेम प्यार निष्ठा को जगाया क्या??
अपने मन से पूछो अधिकार चिलाने वाले
दिल में क्या रखते करुणा दया
पथ में जाते मिले जो घायल
 मरहम बन जाना फौरन
 जब जिससे तुम जहां मिलो
प्रेम प्यार ही बांटो जग में
मानवता को वर लो साथी
सुख शांति को पाओगे
 भूखे को दो रोटी दे दो
 दीन दुखी को देना कपड़े 
जिम्मेदारी समझो अपनी 
करो कर्तव्य पूरे 
*अधिकार*, अधिकार को छोड़ो 
 जो मांगे अधिकार को
 उनके जीवन को धिक्कार

  अलकाजैनआनंदी
स्वरचित, दिल्ली

अधिकार - राजवाला पुँढीर

अधिकार - राजवाला पुँढीर

आज अपना हमें अधिकार चाहिए
आज सपना हमें साकार चाहिए।

बीतीं सदियांँ हैं तबसे मान ना मिला
सूनी रतियाँ हैं कबसे भान ना मिला
आज अँगना हमें उजियार चाहिए।

जबसे फेरे पड़े हैं सजाया है घर
पूरे तन मन से हमने निभाया फर्ज
आज सजना हमें अधिकार चाहिए।

कभी परिवार का हमको माना नहीं 
कभी सत्कार तो हमने जाना नहीं
आज अपना हमें परिवार चाहिए।

सदा नारी ही क्यों कुर्बान होती है
दर्द भारी सहन कर महान होती है
आज  अपना हमें सत्कार चाहिए।

है पुरुष प्रधान ही कबसे हमरा देश 
है पुरुष बलवान ही दिलको देता ठेस
प्रेम रसना हमें भरमार चाहिए।

अपना अधिकार हमने तो खोया सदा
अपना हर फर्ज हमने निभाया सदा
आज हंसता हमें संसार चाहिए।

कभी हक नहीं मिला जिसकी हकदार है
कभी पुष्प नहीं खिला जो खुशबू दार है 
आज सबका हमें अति प्यार चाहिए।

जन्म से ही बेटी तो लगती है बोझ
हरवक्त मन में भरती रहती है जोश
ताज अपना हमें हथियार चाहिए।

आज देश केलिए भी लड़ रहीं बेटियां 
शत्रुओं पे भी भारी पड़ रहीं बेटियां
आज डरना नहीं जयकार चहिए।

मांग है दिल से हमको भी स्वीकारिए
लाडली कहकर हमको भी पुचकारिए
आज अपना हमें भी प्यार चाहिए।

नींद आती नहीं है जब हम सोचते
रोज अपना गुनाह खुद से ही पूंछते 
साफ पुंढीर को अब जवाब चाहिए।

श्रीमती कवयित्री 
    राजवाला पुँढीर
Utter Pradesh 

बेखबर है वो - निर्मला सिन्हा निशा

बेखबर है वो  - निर्मला सिन्हा निशा 

वो देखता है छिपकर मुझे 
मुझे खबर है, बेखबर है वो।

अपनी बातों से करता परेशान मुझे 
मुझे ख़बर है मुझे समझता नादान है वो।

मेरे चेहरे से आंख उसकी हटती नहीं 
मुझे खबर है,मेरा दिवाना है वो।

वो देखता है, छिपकर मुझे 
मुझे खबर है, बेखबर है वो।

बेकरारी से इकरार ना कर बैठे 
मुझे खबर है, मेरे लिए पागल है वो।

नहीं करेगा वो कभी मोहब्बत का इजहार 
मुझे खबर है मेरी परवाह करता है वो।

सजाना चाहता है,मांग में चांद तारे मेरे।
मुझे खबर है ऊंच नीच की दीवार से डरता है वो।

उसके धड़कते दिल की धड़कन सुनने को बैचेन हूं मैं।
मुझे खबर है मुझसे कही ज्यादा बेताब है वो।

वो देखता है छिपकर मुझे 
मुझे खबर है बेखबर है वो।

स्वरचित 
स्वतंत्र लेखिका कवयित्री 
निर्मला सिन्हा निशा 
डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़

पहचान पत्र - डा अनन्तराम चौबे अनन्त

 
राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य मंच हमारी वाणी 

साप्ताहिक प्रतियोगिता हेतु 
विषय.. परिचय पत्र/ परिचय 

पहचान पत्र - डा अनन्तराम चौबे अनन्त

नाम.. महाकवि डा अनन्तराम चौबे अनन्त जबलपुर मध्यप्रदेश 
कविता... पहचान पत्र /परिचय 

आजादी के बाद बनी नितियों 
से आम जनता परेशान हुई ।
कितने पहचान पत्र/परिचय बने
पर जनता ही परेशान हुई ।

देश की जनता  देश की 
नीतियों से हलाकान हुई ।
देश की नीतियों से सभी
आये दिन हैरान परेशान हुए।

देश में एक नीति बनी
राशन कार्ड व्यवस्था का
अच्छा चलन कराया ।
आम जनता ने इसका
भरपूर फायदा उठाया ।

फिर संशोधन नीति आई
लाल पीले हरे गरीबी रेखा
के कार्डो का चलन कराया ।
मध्य वर्ग की जनता को
जो सुविधायें मिल रही थी
सुविधाओं से वंचित कराया।

फिर एक नीति बनी वोटर
पहचान पत्र को बनवाया ।
जनता को वोट डालने की
अच्छी सुविधा दिलवाया ।

फिर जैसे इन कार्डो का
बस चलन सा हो गया ।
इनकम टैक्स के लिये
पेन कार्ड चलन में आया ।

सभी गाड़ियां चलाने का
लायसन्स कार्ड बनवाया ।
विदेश जाने वीजा कार्ड
दवाई के लिए मेडिकल कार्ड ।

मजदूरी कार्ड मनरेगा कार्ड
निजी पहचान कार्ड बनवाये।
फिर एक नीति बनाई
बैंको में ए टी एम कार्ड से
अच्छी सुविधा दिलाई ।

जनता ने जगह जगह पैसा
निकालने अच्छी सुविधा पाई ।
सारा सच फिर एक नीति बनाई
आधार कार्ड चलन में आया
बैंक औऱ गैस कम्पनियों के
इधर उधर चक्कर लगवाये ।

फिर एक नीति बनाई
स्कूल में बच्चों के साथ
पूरे परिवार के लिए सारा 
सच समग्र आई डी कार्ड की
एक और परेशानी बढाई ।

लाडली लक्ष्मी योजना
बेटियों के लिए लाये ।
इसमें भी एक बार
सभी के चैक बनवाये ।

उनको कैंसिल कराकर
सारा सच फिर नये बनवाये
छै माह तक उसी के लिए
बार बार चक्कर कटवाये ।

इस तरह देश में न जाने
कितने कार्डो की नीति बनाई
अब पे टी एम फोन पे गूगल पे
की सुविधा कम  मुसीबत कराई ।

आम जनता को सुविधा कम
परेशानी कुछ ज्यादा ही बढाई
आम जनता को सुविधा मिले 
न मिले कार्ड बने न बने
आम जनता इन्हीं परिचय पत्रों
को बनवाने में हैरान परेशान हुई।

सरकार द्वारा बनाई गई
इन नीतियों से आये दिन देश
की आम जनता परेशान हुई।
जन्म से मृत्यु तक न जाने 
कितने परिचय पत्र बनवाये ।

वर्तमान में चुनाव आयोग ने 
बोटर लिस्ट की चैकिंग में
एस आई आर शुरू किया है ।
घुसपेठियों की पहचान होगी ।
गलत जिसने बोटर पहचान पत्र 
बनवाये है उनकी पहचान होगी ।

विदेशी घुसपेठिये देश में आकर 
 पहले तो देश में बस जाते हैं ।
कुछ दलाल स्वार्थी लोग राशि लेकर 
इनके पहचान पत्र बनवा देते हैं। 

यही घुसपेठिये बोट डालते
फ्री का राशन पानी लेते हैं ।
सरकार की सभी सुविधाएं 
यही घुसपेठिये लेते रहते हैं ।
              
 महाकवि डा अनन्तराम चौबे अनन्त
   जबलपुर म प्र

मेरी कविता है “आधार कार्ड ” - ऋतु रस्तोगी

मेरी कविता है “आधार कार्ड ” - ऋतु रस्तोगी

 बारह आँको की पहचान सबकी ,
हर चेहरा लेकर आए नई उन्नति ।
पता नाम और छाप उँगली की,
सच्ची नागरिकता से प्रगति देश की ।

कौन ग़रीब है, कौन अमीर है,
एक सूची में सब वी विधित है ।
हक़ नागरिकता का “आधार “,
एक विचार मज़बूत आधार ।

सरकारी योजनाओं का लाभ ,
झूठा नहीं मिले सच्चा भाव ।
देशहित का बने आधार,
हर नागरिक को मिले अधिकार ।।

           ऋतु रस्तोगी

अधिकार - कंचनमाला ’अमर’(उर्मी)

अधिकार - कंचनमाला ’अमर’(उर्मी)
________
जीवन की है धारा अधिकार
मन में ये करता है उजियार,
ना बड़ा है ना कोई छोटा
प्रकृति ही देती ये उपहार।

समता सम्मान जीवन का रंग
उचित हमेशा इनका संग,
अन्याय अंधेरा जब जब घेरे
अधिकार भान ही देता बल ।

अधिकार है देता संविधान
देता है मन को खुली उड़ान,
करना उसका हरदम सम्मान
क्योंकि देता सबको पहचान।

अधिकारों का मान सदा है
कर्तव्य बिना ये व्यर्थ सदा हैं,
दोनों जब जब चलते हैं संग
खिलते रहते फिर जीवन रंग।

स्वरचित व मौलिक
कंचनमाला ’अमर’(उर्मी)✍️
Delhi 

अधिकार - संजय वर्मा "दृष्टि "

 

अधिकार - संजय वर्मा "दृष्टि "
     
        जीवन चक्र  में स्त्री का अधिकार 
        मिलना आवश्यक है क्योंकि
        सुना था दुःख के पहाड़ भी गिरते।

स्त्री पर पहाड़ गिरना समझ आया।
कुछ समय बाद पेड़ पर पुष्प हुए पल्ल्वित 
जिन्हें बालों में लगाती थी कभी 
वो बेचारे गिर कर कहरा रहे और मानो 
कह रहे उन लोगो से जो 
शुभ कामों में तुम्हे धकेलते पीछे 
स्त्री का अधिकार न छीनो 
बिन प्रकृति और स्त्री के बिना संसार अधूरा 
हवा फूलों की सुगंध के साथ 
गिरे हुए पुष्प का कर रही सृजन के साथ समर्थन ।

संजय वर्मा "दृष्टि "

बेटियां - उमेश नाग

बेटियां - उमेश नाग 

बेटियां होतीं हैं फूलों की तरह,
खुशबू तरह।
 महकाती घर, आंगन, गुलाब -चम्पा चमेली की तरह।
  ईश्वर की दी हुई अनमोल नियामतें 
  होती हैं बेटियां,
  बेटों की तुलना में कम नही होती है बेटियां।
  बेटा अगर है हीरा तो प्लेटिनम 
  होती हैं बेटियां,
  बेटा यदि करता है एक कुल को
   रोशन;
  बेटियां करतीं हैं दो कुल को-
   रोशन।
   बेटा,भाई या बाप हो, भगवान तो 
    नही हो,
    इंसान के चोले में क्यों हैवान -
     बनें हों।
     नारी में मां,बहन, बेटी रूप होतीं
      हैं बेटियां,
      कुटुम्ब, समाज और सृष्टि की
      ' मूल स्तम्भ होतीं हैं बेटियां।
       बेटियां नहीं होतीं तो क्या सृष्टि 
        सृजन होता?
       नारीयां नही होतीं तो क्या जग
       आबाद होता?
       ईश्वर की भेजीं ' इंसान रूप -
       तोहफा होतीं हैं बेटियां,
       कोई वस्तु नहीं कि इस कदर -
       मसलकर फैंक दी जाती हैं
        बेटियां।
       क्या नहीं जानते? मन से -
       कोमल होतीं हैं बेटियां,
       ओस की एक बूंद होती हैं -
        बेटियां।
        कुत्सित भाव से छूने से बिखर
        जातीं हैं बेटियां,
        भगवान के दरबार में किसी से 
         कम नहीं होतीं हैं बेटियां।
         दोनों ही ' उसकी आत्मा के 
         अंश हैं,
         वहां कोई भेदभाव नहीं होता
         दोनों ही ' उसकी ' आत्मा के 
         अंश हैं। 
          वहां कोई भेदभाव नहीं होता 
          दोनों को ही बराबर न्याय
           मिलता।
           राम की धरती पर मर्यादा,
           संयम भूल गए हैं लोग,
           देवों की धरती पर ' इंसान '
           से रावण बन गयें हैं लोग।
           बहुत हो गया बस,है प्रभु!
           इन्हें नेक राह दिखा दें।
            भ्रमित,कपट और छलावे 
            की अज्ञानता से,
            मानव को धर्म, सुकर्म का 
            पाठ याद दिला दें।
            राम कृष्ण की धरती को -
            कलंक से बचालें,
            घर घर में वेद, कुरान और
            बाईबल का ज्ञान पहुंचा दें।

                           श्रीमती उमेश नाग जयपुर राजस्थान

परिचय - सपना